वैदिक ज्योतिष अनुसार कुंडली में दशा (Dasha) यह संज्ञा बहुधा सुनने को मिलती हैं । दशा या ग्रह दशा अर्थात अवस्था। सरल भाषा में मनुष्य के जीवन में जिस काल में जो ग्रह फलदायी होता है, उस कालावधि को उस ग्रह ही दशा कहकर संबोधित किया जाता है। वैदिक ज्योतिषशास्त्र में अनेकों प्रकार की दशाओं का वर्णन मिलता है। कुंडली या फलादेश में दशा का तात्पर्य ग्रह दशा हैं। इसलिए, दशा अर्थात ग्रहों की दशा हैं। ग्रहों का जो फल प्राप्त होता हैं, उस कालावधि का पता करने के लिए और उसका लाभ जातक उठा सकें यह जानने के लिए दशा की गणना की जाती हैं। दशा का विचार करते समय अन्य घटक महत्वपूर्ण होते है, जैसे ग्रह, नक्षत्र, चंद्रपक्ष (शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष), सूर्योदय, सूर्यास्त आदि। अब, जब हम संक्षिप्त में दशा या ग्रह अवस्था क्या हैं, यह जान गए है, आइए अब इनके प्रकार, महत्त्व, फल प्राप्ति के विषय में अधिक विस्तार से जानें।
कुंडली में दशा का महत्व क्या हैं? जातक के भूत, भविष्य और वर्तमान काल की विवेचन हेतु ग्रहों के फलदायक काल या किसी योग के फल को जानने के लिये दशाओ का अध्ययन किया जाता है। दशा गणना पद्धतीयों में हर ग्रह के लिये मानव आयुकाल, १२०, या १०८ वर्षों को विभाजित कर विशिष्ट कालावधि निर्धारित होती है जिसे महादशा कहते हैं। इस महादशा को फिर सभी ग्रहों की अंतर्दशाओं में और इन अंतर्दशाओं को प्रत्यंतर दशाओं में विभाजित कर, और छोटी अवधियों का निर्धारन होता है। जिससे अत्यंत कम अवधि के लिए भी शुभाशुभ फलों को ज्ञात किया जा सके।
वेदांग ज्योतिष में ऐसे तो कई दशाओं का उल्लेख है पर सामान्य तौर पर विविध क्षेत्रों में प्रायः जिन तीन पद्धतियों का अवलंब किया जाता है, जो सर्वप्रचलित और सर्वमान्य है और गणना करते समय विचार में ली जाती हैं, ये तिन मुख्य दशाएं है :
विंशोत्तरी महादशा, अष्टोत्तरी महादशा तथा योगिनी दशा
जन्म कुंडली बनाते समय प्रायः विंशोत्तरी या अष्टोत्तरी महादशा निकली जाती है। यहां विंशोत्तरी में आयुकाल १२० वर्ष और अष्टोत्तरी में १०८ वर्ष मानकर गणना की जाती हैं। दशाओं का फल जानने से पहले यह मूलभूत बात समझना आवश्यक हैं कि, जैसा ग्रह का फल होगा वैसा फल उस दशा में प्राप्त होगा। इसलिए प्रथम, ग्रहों के गुणों और दोषों का भलीभांति ज्ञान होना जरुरी हैं। दशा गणना में चंद्र पक्ष भी विचाराधीन लिया जाता हैं। उदाहारण के लिए, यदि जातक का जन्म शुक्ल पक्ष में सूर्यास्त के बाद हुआ हो तो विंशोत्तरी दशा मानी जाएगी और यदि जन्म कृष्ण पक्ष में सूर्योदय के समय हुआ हो तो अष्टोत्तरी दशा मानी जाएगी। अष्टोत्तरी, योगिनी, विंशोत्तरी यह प्रमुख दशाएं नक्षत्र दशाएं भी कहलाती हैं, जिसका आधार चंद्र नक्षत्र होता हैं। उत्तर भारत में विंशोत्तरी दशा और दक्षिण भारत में अष्टोत्तरी दशा अधिक प्रचलित हैं, हालाँकि यह सिमित नहीं हैं।
जातक के कुंडली में शुभाशुभ फल कथन हेतु विंशोत्तरी दशा को कई देशी और विदेशी विद्जनों और ज्योतिषियों द्वारा अधिक सत्य, विश्वसनीय और प्रामाणिक माना जाता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथ और लेखों ने कलियुग में मानव के आयुकाल को 120 वर्ष मानकर इस दशा पद्धति को विकसित किया था, तथा महर्षि पाराशर इसके रचयिता माने जाते है। वर्तमान समय में, ज्योतिषाचार्यों द्वारा बहुमत से मानव आयु 80 वर्ष मानकर विंशोत्तरी गणना की जा रही हैं।
खगोलीय सौर मंडल 27 नक्षत्रो में विभाजित है तथा 27 नक्षत्रो को तीन भागों में बाँटने पर प्रत्येक भाग मे 9 नक्षत्र आते है। सूर्यादि नवग्रह, इन नक्षत्रों के स्वामी माने गए है। इनका क्रम सूर्य, चंद्र, मंगल, राहु, गुरु, शनि, बुध, केतु शुक्र है। इन ग्रहों को निश्चित दशा वर्ष काल प्राप्त है, जो निम्न प्रकार से हैं: सूर्य 6 वर्ष, चंद्र 10 वर्ष, मंगल 7 वर्ष, राहु 18 वर्ष, गुरु 16 वर्ष, शनि 19 वर्ष, बुध 17 वर्ष, केतु 7 वर्ष और शुक्र 20 वर्ष है। इस प्रकार ग्रहो की दशा वर्ष का कुलमान 120 होगा।
दशा गणना का प्रारंभ कृतिका नक्षत्र से होता है। कृतिका से पूर्वाफाल्गुनी तक प्रथम आवृत्ति या जन्म नक्षत्र आवृत्ति, उत्तराफाल्गुनी से पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र तक द्वितीय आवृत्ति या अनुजन्म आवृत्ति, उत्तराषाढ़ा से भरणी नक्षत्र तक तृतीय आवृत्ति या त्रिजन्म आवृत्ति कहलाती है। इस तरह प्रथम नक्षत्र का स्वामी दसवे और उन्नीसवे नक्षत्र का स्वामी होता है, अतः तीन आवृत्तियो के 360 सौरवर्ष या एक चक्र होता है।
दशा प्रभावों के लिए कुंडली का विश्लेषण करते समय क्लिकएस्ट्रो में उत्तर भारतीय तथा दक्षिण भारतीय सिद्धांतों को ध्यान में रखा जाता है –
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